शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

ग़ज़ल

मैं बन्द आँखों से दुनिया भर के मन्ज़र देख लेता हूँ -
सुखन वाला हूँ, हर इक शय  को  बेहतर देख लेता हूँ -

गुजरता  हूँ  उधर  से  जब,  पलटकर  देख  लेता  हूँ -
कोई  रहता  नहीं  वाँ  फिर  भी  अक्सर देख लेता हूँ -

किसी  की  ख़ुश्क़  पथरायी  सी  आँखें  याद  आती हैं
कभी  टुकड़ा  ज़मीं  का  मैं  जो  बंज़र  देख  लेता  हूँ -

वो  'मैं'  जो  बरसों  पहले खो गया, उसकी तलाशी में
यूँ   ही  गाहे - बगाहे   अपने   अन्दर   देख  लेता  हूँ -

किये  बैठा  हूँ  अपने  हौसले  को  कबसे  मैं  तलवार
उसे  लाने   दो  अपने  लाव - लश्कर,  देख  लेता  हूँ -

मेरा  दुश्मन  भी  मुझपे  वार  करके  ख़ुद  तड़पता  है
मैं  हर इक  वार  पे उसके, जो हँसकर  देख  लेता हूँ -

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