ये जो मेरे ख़यालात हैं न..
दरिया में तहलील बूंदों की माफिक
तुम में अपने मायने ढूंढते हैं..
ये चाहें धूप में पिघल जाएँ
भाप की शक्लें पहनकर
या मीलों कर लें परवाज़
कहीं बादलों में छुपकर
गुलाब की पंखुड़ियों से झांकें
ओस की शक्लों में
या फिर किसी टूटे पत्ते
की मानिंद उड़ते रहें इधर-उधर
ये बहुत कोशिशों के बाद
अब भी 'तुम' तलक ही पहुँच पाते हैं..
तुमने तो अब ख़यालात की भी हदें बाँध दी हैं...
(तहलील= विलीन / डूबा हुआ / immersed; मायने= अर्थ / meaning; परवाज़= उड़ान)