बहुत पहले 'दिल' और 'दिमाग' अच्छे दोस्त हुआ करते थे। उनका उठना-बैठना,
देखना-सुनना, सोचना-समझना और फैसले लेना, सब कुछ साथ-साथ होता था।
फिर इक रोज़ यूँ हुआ कि 'दिल' को अपने जैसा ही एक हमख्याल 'दिल' मिला। दोनों ने एक दूसरे को देखा और देखते ही, धड़कनों की रफ़्तार बढ़ी सी मालूम हुई। मिलना-जुलना बढ़ा तो कुछ रोज़ में, दिलों की अदला-बदली भी हो गयी। अब एक दिल मचलता तो दूसरे की धड़कने भी तेज हो जातीं; एक रोता तो दूजे की धड़कने भी धीमे होने लगतीं। बस एक दिक्कत थी कि दोनों सही फैसले नहीं कर पाते थे। वज़्ह कि फैसले दिमाग लेता है और वो अब दिल से दूर हो चुका था। वैसे भी अगर आप, दो लोगों के बीच खड़े हों और अचानक से किसी एक की ओर रुख़ करके चलने लगें, तो दूसरा खुद-ब-खुद दूर हो ही जाएगा।
फिर इक रोज़ यूँ हुआ कि 'दिल' को अपने जैसा ही एक हमख्याल 'दिल' मिला। दोनों ने एक दूसरे को देखा और देखते ही, धड़कनों की रफ़्तार बढ़ी सी मालूम हुई। मिलना-जुलना बढ़ा तो कुछ रोज़ में, दिलों की अदला-बदली भी हो गयी। अब एक दिल मचलता तो दूसरे की धड़कने भी तेज हो जातीं; एक रोता तो दूजे की धड़कने भी धीमे होने लगतीं। बस एक दिक्कत थी कि दोनों सही फैसले नहीं कर पाते थे। वज़्ह कि फैसले दिमाग लेता है और वो अब दिल से दूर हो चुका था। वैसे भी अगर आप, दो लोगों के बीच खड़े हों और अचानक से किसी एक की ओर रुख़ करके चलने लगें, तो दूसरा खुद-ब-खुद दूर हो ही जाएगा।
तब एक रोज़ 'दिमाग',
'दिल' को समझाने लगा- "यूँ ही, बिला-वज़ह, किसी से दिल लगा लेना, ठीक नहीं।
ख़ुद की परेशानियाँ ही क्या कम हैं, जो बेवज़ह दूसरे के लिए परेशान
रहें..? दूसरों के लिए धड़का करें..? जब अपने ज़ज्बात ही नहीं संभाले जाते,
तो फालतू में दूसरों के ज़ज्बात को क्यूँ ढोते फिरें..?" अब सोचना और
समझना, दिल का काम तो है नहीं। आखिरकार आ ही गया, दिमाग की बातों में...।
थोड़ा रो-धोकर अपने हमख्याल दिल को भी छोड़ ही दिया। पर अब वो 'दिल' नहीं
रह गया था। 'दिमाग' में तब्दील हो चुका था।
*****
(यह लघुकथा http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:293149?xg_source=activity पर भी पढ़ी जा सकती है)
(चित्र- गूगल से साभार)
दिल-दिमाग में पक रही, खिचड़ी नित स्वादिष्ट ।
जवाब देंहटाएंदिल को दूजा दिल मिला, नव-रिश्ते हों श्लिष्ट ।
नव-रिश्ते हों श्लिष्ट, मस्त हो जाती काया ।
पर दिमाग अति-क्लिष्ट, नेक दिल को भरमाया ।
पड़ती दिल में गाँठ, झोंकता प्रीत आग में ।
दिल बन जाय दिमाग, फर्क नहीं दिल दिमाग में ।।
हार्दिक धन्यवाद रविकर जी. :)
जवाब देंहटाएंछोटी सी यह लघुकथा, दिया आपने नाप |
ज्यों सुघ्घड़ है कुंडली, सुघ्घड़ होंगे आप ||
बेहतरीन प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार सदा जी.
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