बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

उम्मीद



काफी रोज से चाँद-तारे नहीं टाँके मैंने किसी सफ्हे पर.
एक नुक्ता सा सूरज भी जाने कबसे
अपनी बारी का मुन्तजिर है..

इस मौसम, ग़म की बेल में कोंपलें नहीं फूटीं.
और न तो इस बार
कोई रिश्ता ही पककर टूटा..

भगवान और अल्लाह के दरम्याँ
झगड़े भी नहीं होते आजकल..
कि अपने किस्सों में उनके मसअले सुलझाता फिरूँ.

मैं तो बस इस उम्मीद से, ऐ खुदा!

अबकी तेरे सजदे में हूँ
कि फिर से कलम हामला हो मेरी,
और मेरे ख्यालात को आज़ादी मिले.
यूँ ही सही..
किसी मासूम नज़्म की शक्ल में...

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