काफी रोज से चाँद-तारे नहीं टाँके मैंने किसी सफ्हे पर.
एक नुक्ता सा सूरज भी जाने कबसे
अपनी बारी का मुन्तजिर है..
इस मौसम, ग़म की बेल में कोंपलें नहीं फूटीं.
और न तो इस बार
कोई रिश्ता ही पककर टूटा..
भगवान और अल्लाह के दरम्याँ
झगड़े भी नहीं होते आजकल..
कि अपने किस्सों में उनके मसअले सुलझाता फिरूँ.
मैं तो बस इस उम्मीद से, ऐ खुदा!
अबकी तेरे सजदे में हूँ
कि फिर से कलम हामला हो मेरी,
और मेरे ख्यालात को आज़ादी मिले.
यूँ ही सही..
किसी मासूम नज़्म की शक्ल में...
एक नुक्ता सा सूरज भी जाने कबसे
अपनी बारी का मुन्तजिर है..
इस मौसम, ग़म की बेल में कोंपलें नहीं फूटीं.
और न तो इस बार
कोई रिश्ता ही पककर टूटा..
भगवान और अल्लाह के दरम्याँ
झगड़े भी नहीं होते आजकल..
कि अपने किस्सों में उनके मसअले सुलझाता फिरूँ.
मैं तो बस इस उम्मीद से, ऐ खुदा!
अबकी तेरे सजदे में हूँ
कि फिर से कलम हामला हो मेरी,
और मेरे ख्यालात को आज़ादी मिले.
यूँ ही सही..
किसी मासूम नज़्म की शक्ल में...
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