बुधवार, 11 जुलाई 2012

तजर्बा

ट्रेन अम्बाला स्टेशन पर खड़ी थी. मैं साइड लोवर सीट की खिड़की से प्लेटफॉर्म की भीड़ को देख रहा था कि अचानक परेशान सा दिख रहा एक शख्स मेरी खिड़की के सामने आ खड़ा हुआ और अपना दुखड़ा सुनाने लगा. जितनी पंजाबी मुझे समझ आती है, उसके हिसाब से मालूम चला कि उस व्यक्ति के ११०० रुपये चोरी हो गए और उसे अमृतसर जाना है. उसके सिर पर सरदारों वाली पगड़ी देखकर मैंने उसकी बात के सच होने का अनुमान लगाया. फिर क्या.. मैंने अपनी जेब से १०० रुपये निकाले और उसे देते हुए कहा- "मैंने आज तक किसी सरदार को (भीख) मांगते हुए नहीं देखा. इसलिए उम्मीद करता हूँ, तुम भी झूठ नहीं कहते होगे." उसने भी पैसे लेकर गुरुद्वारे में मेरे लिए दुआ करने की बात कही और चला गया. मन में संतोष था कि मैंने आज सही मायनों में एक जरूरतमंद की मदद की. ऐसा सोचते हुए मैं फिर से खिड़की के बाहर झाँक ही रहा था कि अचानक वही शख्स दूसरी खिड़की पर अपने नए ग्राहक के सामने अनुनय-विनय करता दिखा. थोड़ी मायूसी तो जरूर हुई, पर जो तजर्बा मैंने कमाया, उसकी कीमत १०० रुपये से कहीं ज्यादा थी.