बुधवार, 21 जनवरी 2009

अंतर

आज मैंने देखा...
मंडराते हुए
इधर उधर घूमते हुए
कौवों के झुंड को..
और खाते हुए नरमुंड को...

आज मैंने पा लिया,
मानवों और कौवों में
अंतर पता लगा लिया...

वे देते हैं श्रद्धांजलि मंडराकर,
तब खाते हैं..

पर ये जो मानव हैं..
मंडराकर, खाकर,
तब श्रद्धांजलि दे पाते हैं...

कौन हूँ मैं...?

कौन हूँ मैं...
हाँ.. कौन हूँ मैं...
इसी का तो खोज रहा जवाब,
की कौन हूँ मैं...

क्या मैं वो हूँ,
जिसे उसकी माँ दूर भेजते हुए
अपने आंसू पोछती है...,
और फिर...
कब आएगा मेरा लाल
यही सोचकर उसकी राह तकती है...

क्या मैं वो हूँ,
जिसे उसका बाप कहता है
तुम्हे एक दिन बहुत आगे बढ़ना है...,
और मेरा नाम...
इस दुनिया में रोशन करना है...

हाँ, वही तो हूँ शायद मैं...
हाँ.. हाँ, वही तो हूँ मैं...
पर क्या फायदा ये जानकर
जब चलना है दूसरों की मानकर,
करना तो था कुछ और...
लेकिन सोते रहे चादर तानकर...

लेकिन है भरोसा एक दिन
अपना जहाँ बना बनाऊंगा मैं,
और तभी शायद इसका जवाब
ढूंढ पाऊंगा मैं... की
कौन हूँ मैं...?
कौन हूँ मैं...?

***

(मेरी पहली कविता, जो ०७-अप्रैल-२००४ को रात ९:२० बजे रमन छात्रावास, लखनऊ में लिखी थी.)