गुरुवार, 29 नवंबर 2012

'दिल' और 'दिमाग'


बहुत पहले 'दिल' और 'दिमाग' अच्छे दोस्त हुआ करते थे। उनका उठना-बैठना, देखना-सुनना, सोचना-समझना और फैसले लेना, सब कुछ साथ-साथ होता था।
फिर इक रोज़ यूँ हुआ कि 'दिल' को अपने जैसा ही एक हमख्याल 'दिल' मिला। दोनों ने एक दूसरे को देखा और देखते ही, धड़कनों की रफ़्तार बढ़ी सी मालूम हुई। मिलना-जुलना बढ़ा तो कुछ रोज़ में, दिलों की अदला-बदली भी हो गयी। अब एक दिल मचलता तो दूसरे की धड़कने भी तेज हो जातीं; एक रोता तो दूजे की धड़कने भी धीमे होने लगतीं। बस एक दिक्कत थी कि दोनों सही फैसले नहीं कर पाते थे। वज़्ह कि फैसले दिमाग लेता है और वो अब दिल से दूर हो चुका था। वैसे भी अगर आप, दो लोगों के बीच खड़े हों और अचानक से किसी एक की ओर रुख़ करके चलने लगें, तो दूसरा खुद-ब-खुद दूर हो ही जाएगा। 
तब एक रोज़ 'दिमाग', 'दिल' को समझाने लगा- "यूँ ही, बिला-वज़ह, किसी से दिल लगा लेना, ठीक नहीं। ख़ुद की परेशानियाँ ही क्या कम हैं, जो बेवज़ह दूसरे के लिए परेशान रहें..? दूसरों के लिए धड़का करें..? जब अपने ज़ज्बात ही नहीं संभाले जाते, तो फालतू में दूसरों के ज़ज्बात को क्यूँ ढोते फिरें..?" अब सोचना और समझना, दिल का काम तो है नहीं। आखिरकार आ ही गया, दिमाग की बातों में...। थोड़ा रो-धोकर अपने हमख्याल दिल को भी छोड़ ही दिया। पर अब वो 'दिल' नहीं रह गया था। 'दिमाग' में तब्दील हो चुका था।

*****


(यह लघुकथा http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:293149?xg_source=activity पर भी पढ़ी जा सकती है)
(चित्र- गूगल से साभार)

बुधवार, 11 जुलाई 2012

तजर्बा

ट्रेन अम्बाला स्टेशन पर खड़ी थी. मैं साइड लोवर सीट की खिड़की से प्लेटफॉर्म की भीड़ को देख रहा था कि अचानक परेशान सा दिख रहा एक शख्स मेरी खिड़की के सामने आ खड़ा हुआ और अपना दुखड़ा सुनाने लगा. जितनी पंजाबी मुझे समझ आती है, उसके हिसाब से मालूम चला कि उस व्यक्ति के ११०० रुपये चोरी हो गए और उसे अमृतसर जाना है. उसके सिर पर सरदारों वाली पगड़ी देखकर मैंने उसकी बात के सच होने का अनुमान लगाया. फिर क्या.. मैंने अपनी जेब से १०० रुपये निकाले और उसे देते हुए कहा- "मैंने आज तक किसी सरदार को (भीख) मांगते हुए नहीं देखा. इसलिए उम्मीद करता हूँ, तुम भी झूठ नहीं कहते होगे." उसने भी पैसे लेकर गुरुद्वारे में मेरे लिए दुआ करने की बात कही और चला गया. मन में संतोष था कि मैंने आज सही मायनों में एक जरूरतमंद की मदद की. ऐसा सोचते हुए मैं फिर से खिड़की के बाहर झाँक ही रहा था कि अचानक वही शख्स दूसरी खिड़की पर अपने नए ग्राहक के सामने अनुनय-विनय करता दिखा. थोड़ी मायूसी तो जरूर हुई, पर जो तजर्बा मैंने कमाया, उसकी कीमत १०० रुपये से कहीं ज्यादा थी.

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

उम्मीद



काफी रोज से चाँद-तारे नहीं टाँके मैंने किसी सफ्हे पर.
एक नुक्ता सा सूरज भी जाने कबसे
अपनी बारी का मुन्तजिर है..

इस मौसम, ग़म की बेल में कोंपलें नहीं फूटीं.
और न तो इस बार
कोई रिश्ता ही पककर टूटा..

भगवान और अल्लाह के दरम्याँ
झगड़े भी नहीं होते आजकल..
कि अपने किस्सों में उनके मसअले सुलझाता फिरूँ.

मैं तो बस इस उम्मीद से, ऐ खुदा!

अबकी तेरे सजदे में हूँ
कि फिर से कलम हामला हो मेरी,
और मेरे ख्यालात को आज़ादी मिले.
यूँ ही सही..
किसी मासूम नज़्म की शक्ल में...