
इक कमरे का है ये मकाँ...
यहाँ आदमियों की जगह नहीं,
खाने को दो दिनों की भूख है
पीने को रिस-रिसकर बहता पानी
बेरंग सी दीवारों की मुन्तज़िरी,
औ छत की रोती सी दीवारें
गोशों में बिखरा साजो-सामान
टूटे फर्श के टुकड़े निहारें
इमकान-ए-आसूदगी के पैबंद लगी,
अजीयत की लम्बी चादरें...
कहीं तो जाके ख़तम हों,
ये सोज़-ओ-खलिश की कतारें
अधूरे से पड़े ख्वाब
और न ही चाहतें हैं,
मलबूस-ए-गरीब तो
खामोश ग़मों की आहटें हैं
खुशनुमे कल की उम्मीद है बस...
जीते रहने की और वज़ह नहीं
इक कमरे का है ये मकाँ......
( मुन्तज़िरी= इंतजारी; गोशों= कोनों; इमकान-ए-आसूदगी= ख़ुशी की संभावनाएं; अजीयत= तकलीफ; सोज़-ओ-खलिश= दुःख और उलझन; मलबूस-ए-गरीब= गरीब व्यक्ति का लिबास)
इक कमरे का है ये मकाँ...
जवाब देंहटाएंयहाँ आदमियों की जगह नहीं,
खाने को दो दिनों की भूख है
पीने को रिस-रिसकर बहता पानी
बेरंग सी दीवारों की मुन्तज़िरी,
औ छत की रोती सी दीवारें
इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....