tag:blogger.com,1999:blog-7818781262927029884.post7862080695704441163..comments2023-10-10T21:01:37.829+05:30Comments on मेरे दो हर्फ़.. बने इक लफ़्ज़..: गरीबीविवेक मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/13646843060586352011noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-7818781262927029884.post-8756995694071597612010-04-13T11:22:56.833+05:302010-04-13T11:22:56.833+05:30इक कमरे का है ये मकाँ...
यहाँ आदमियों की जगह नहीं...इक कमरे का है ये मकाँ...<br /><br />यहाँ आदमियों की जगह नहीं,<br /><br />खाने को दो दिनों की भूख है<br /><br />पीने को रिस-रिसकर बहता पानी<br /><br />बेरंग सी दीवारों की मुन्तज़िरी,<br /><br />औ छत की रोती सी दीवारें <br /><br /><br /><br />इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....संजय भास्कर https://www.blogger.com/profile/08195795661130888170noreply@blogger.com