गुरुवार, 11 मार्च 2010

गरीबी


इक कमरे का है ये मकाँ...

यहाँ आदमियों की जगह नहीं,

खाने को दो दिनों की भूख है

पीने को रिस-रिसकर बहता पानी

बेरंग सी दीवारों की मुन्तज़िरी,

औ छत की रोती सी दीवारें

गोशों में बिखरा साजो-सामान

टूटे फर्श के टुकड़े निहारें

इमकान-ए-आसूदगी के पैबंद लगी,

अजीयत की लम्बी चादरें...

कहीं तो जाके ख़तम हों,

ये सोज़-ओ-खलिश की कतारें

अधूरे से पड़े ख्वाब

और न ही चाहतें हैं,

मलबूस-ए-गरीब तो

खामोश ग़मों की आहटें हैं

खुशनुमे कल की उम्मीद है बस...

जीते रहने की और वज़ह नहीं

इक कमरे का है ये मकाँ......



( मुन्तज़िरी= इंतजारी; गोशों= कोनों; इमकान-ए-आसूदगी= ख़ुशी की संभावनाएं; अजीयत= तकलीफ; सोज़-ओ-खलिश= दुःख और उलझन; मलबूस-ए-गरीब= गरीब व्यक्ति का लिबास)


1 टिप्पणी:

  1. इक कमरे का है ये मकाँ...

    यहाँ आदमियों की जगह नहीं,

    खाने को दो दिनों की भूख है

    पीने को रिस-रिसकर बहता पानी

    बेरंग सी दीवारों की मुन्तज़िरी,

    औ छत की रोती सी दीवारें



    इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....

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