रविवार, 28 अप्रैल 2013

लड़की

मुझे याद तो नहीं कि
मेरी आँखें कब खुलीं थीं
पर इतना याद है
वो छुअन थी किसी की
और मैं नींद से जाग पड़ी
जाने कौन मेरे चेहरे को छू रहा था
जाने कौन मुझे महसूस कर रहा था
माँ थी शायद..
माँ ही रही होगी..
इतने प्यार से, इतने दुलार से
तब वही मुझे छू सकती थी

वो सब कुछ जो मैं मांगती,
मिल ही जाता था माँ से
खट्टी इमली
आँगन की मिट्टी
चूने की खड़िया
कच्ची अमिया
और तो और सांसें भी..

कभी-कभी जब किसी बात पे नाराज़ होकर
मैं, उसके पेट पर पैर पटकती
या फिर, लम्बी तन्हाई से ऊबकर
अंगड़ाई लेते हुए अपने हाथ हिलाती,
तब माँ झट समझ जाती कि
मैं भी सपने देखने लगी हूँ.
मेरी स्वयं की सोच, एक उन्मुक्त आकाश, को छूने के सपने..
फिर अचानक कुछ सोचकर थाम लेती थी मुझे

जाने क्या जल्दी थी मुझे
जाने क्यों चली आई
छोड़कर दर्द में डूबे हुए
माँ के जिस्म को..
छोड़कर संसार की उस सबसे 'सुरक्षित' जगह को..

अब देखती हूँ जब उस अंतहीन आकाश की ओर
तो समझने लगी हूँ मैं कि
माँ बनने से बहुत पहले,
माँ भी एक 'लड़की' रही होगी
उसे यह मालूम था कि
वो, वहाँ, आकाश जैसा कुछ भी नहीं
वो दरअसल 'समूह' है
अनगिनत आँधियों और चक्रवातों का
और, उन सबके मुकाबले
'लड़कियों' के पंख बहुत छोटे होते हैं..

***


(चित्र गूगल से साभार)

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