बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

अर्घ्य


सांझ की पंचायत में..

शफ़क की चादर में लिपटा

और जमुहाई लेता सूरज,

गुस्से से लाल-पीला होता हुआ

दे रहा था उलाहना...



'मुई शब..!

बिन बताये ही भाग जाती है..

सहर भी, एकदम दबे पांव

सिरहाने आकर बैठ जाती है..

और ये लोग-बाग़, इतनी सुबह-सुबह

चुल्लुओं में आब-ए-खुशामद भर-भर कर

उसके चेहरे पे छोंपे क्यूँ मारते हैं?'



उफक ने डांट लगाई-

'ज्यादा चिल्ला मत..

तेरे डूबने का वक़्त आ गया..'


माँ समझाती थी-

"उगते सूरज को तो सभी अर्घ्य देते है.."


- डूबते को क्यूँ नहीं देता अर्घ्य कोई..... 




 (शफ़क= सूर्यास्त की लालिमा, सहर= सुबह/प्रातःकाल, आब-ए-खुशामद= चापलूसी के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला जल,  उफ़क= क्षितिज.)


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