गुरुवार, 5 मई 2011

सुबह, शाम और रात..



एक सुबह थी..
जब सपने में देख रहा था तुम्हें ही छुप-छुपकर
और फिर तुम्हारी ही आवाज से नींद खुली थी मेरी  
मानों धप्पा मारा हो किसी ने 'आईस-बाईस' में

एक शाम थी..
जब मेरी किसी बात से चिढ़कर तुमने कसकर एक
मुक्का मारा था मेरी पीठ पर और खुद ही रो पड़े थे
मानों कोई बच्चा गलती करके लिपट गया हो माँ से 

 
एक रात थी..
जब दो घंटे और तैंतीस मिनट बातें करने के बाद
'गुड नाइट' कहकर तुमने फोन रखा तो ऐसा लगा
मानों बीच में ही रुक गया हो कोई फेवरिट सा सौंग

 
सोचता हूँ, कभी मैं भी अमीर था कारूँ जितना
सोचता हूँ, कभी मुझ पर भी खुदा मेहरबान था 
***

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

विकर्षण

कभी पढ़ा था..
जब दूरियाँ कम
हो जाती हैं
एक हद से ज्यादा,
तो अणुओं में
विकर्षण होने लगता है..
तेरे-मेरे दरमियान
जो दरारें बनी थीं,
उनकी वज़ह मुझे
अब जाकर मालूम हुई..

बुधवार, 12 जनवरी 2011

ख़यालात की हदें



ये जो मेरे ख़यालात हैं न..


दरिया में तहलील बूंदों की माफिक

तुम में अपने मायने ढूंढते हैं..



ये चाहें धूप में पिघल जाएँ

भाप की शक्लें पहनकर

या मीलों कर लें परवाज़

कहीं बादलों में छुपकर



गुलाब की पंखुड़ियों से झांकें

ओस की शक्लों में

या फिर किसी टूटे पत्ते

की मानिंद उड़ते रहें इधर-उधर


ये बहुत कोशिशों के बाद

अब भी 'तुम' तलक ही पहुँच पाते हैं..


तुमने तो अब ख़यालात की भी हदें बाँध दी हैं...


(तहलील= विलीन / डूबा हुआ / immersed; मायने= अर्थ / meaning; परवाज़= उड़ान)

बुधवार, 10 नवंबर 2010

मुहूर्त ट्रेडिंग (लघुकथा)

 **

जेल की कालिख लगी दीवार से टेक लगाकर बैठा 'हरिया' शून्य में निहारते हुए अपनी किस्मत को कोस रहा था. छुटकी को भी, लाई और बताशे मिलने की उम्मीद रही होगी. बेचारा छुटका तो कई दिनों से पटाखे खरीदने की जिद कर रहा था. पर ४० रुपये में आखिर क्या-क्या लेकर घर जाता..? उतने में तो पूरे कुनबे को एक वक़्त की रोटी भी नसीब  नहीं होती. ऐसे में, अगर उसने 'चालीस' को 'चार सौ' बनाने के लिए 'जुआ' खेल भी लिया तो क्या बुरा कर दिया..?

-"कल तो यार मज़ा ही आ गया. कल दिवाली पर, शाम को केवल एक घंटे के भीतर ही शेयरों की 'मुहूर्त ट्रेडिंग' करके मैंने ४००० रुपये कमा लिए."
-"चलो... कम से कम इस बार के पटाखों का खर्चा तो वसूल हुआ.."
-"हा.. हा.. हा.. हा.."

और उन दोनों वर्दी वालों को हँसते देखकर हरिया सोच रहा था--
" काश दिवाली के दिन जुआ खेलने की बजाय मैंने भी 'मुहूर्त ट्रेडिंग' की होती....."

 **

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

अर्घ्य


सांझ की पंचायत में..

शफ़क की चादर में लिपटा

और जमुहाई लेता सूरज,

गुस्से से लाल-पीला होता हुआ

दे रहा था उलाहना...



'मुई शब..!

बिन बताये ही भाग जाती है..

सहर भी, एकदम दबे पांव

सिरहाने आकर बैठ जाती है..

और ये लोग-बाग़, इतनी सुबह-सुबह

चुल्लुओं में आब-ए-खुशामद भर-भर कर

उसके चेहरे पे छोंपे क्यूँ मारते हैं?'



उफक ने डांट लगाई-

'ज्यादा चिल्ला मत..

तेरे डूबने का वक़्त आ गया..'


माँ समझाती थी-

"उगते सूरज को तो सभी अर्घ्य देते है.."


- डूबते को क्यूँ नहीं देता अर्घ्य कोई..... 




 (शफ़क= सूर्यास्त की लालिमा, सहर= सुबह/प्रातःकाल, आब-ए-खुशामद= चापलूसी के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला जल,  उफ़क= क्षितिज.)


शनिवार, 12 जून 2010

दो बत्तियां


















दरवाज़े की झिर्री से दो बत्तियां दिखती हैं,

कुछ टिमटिमाती भर हैं;

कुछ आँखों को चुभती हैं,

तीन मर्तबा बंद कर चुका दरवाज़ा भी

ये दरीचा भी कमबख्त ऊँचाई पे है,

टकटकी लगा के देख रहा कब से,

शायद मेरी नज़रें चुभ जाएँ उसको,

आजकल शर्म किसे आती है...

इधर उधर देखो तो भी ;

इक अक्स सा दिखता है उसका….

बोझिल सी हो चली हैं पलकें

कमरें की लाईटें भी बुझा दीं अब तो,

पर वो दो बत्तियां अब भी जलती हैं…

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

लोग


...ऐसे लोग...
...वैसे लोग...
मेरे जैसे नहीं होते अब,
मेरे चेहरे जैसे लोग..

किताबों में ढूढ़ते..
गुजरते वक़्त को,
कब के गुजर गए;
गुजरे वक़्त जैसे लोग..

ये काबा तेरा;
ये शिवाला मेरा,
नींदों में कंधा बाँटते..
ये सरहदों जैसे लोग..

मंदिर की चौखट पे;
होती थी बैठकबाजी,
जाने कब मुसलमाँ बने;
ये मज़हबों जैसे लोग..

अजमत-ए-खुदा थी;
जो रंग-ए-सुर्ख दिया,
कल ज़मीन से निकलते;
नीले-पीले से लोग..

लिखता हूँ नज़्म;
बन जाती है मुअम्मा,
अब कौन सुलझाए;
खुद उलझे से लोग..??

देख रखी है दुनिया;
थोड़ी सी हमने भी,
केवल दो होते हैं;
अच्छे लोग औ बुरे लोग...

गुरुवार, 11 मार्च 2010

गरीबी


इक कमरे का है ये मकाँ...

यहाँ आदमियों की जगह नहीं,

खाने को दो दिनों की भूख है

पीने को रिस-रिसकर बहता पानी

बेरंग सी दीवारों की मुन्तज़िरी,

औ छत की रोती सी दीवारें

गोशों में बिखरा साजो-सामान

टूटे फर्श के टुकड़े निहारें

इमकान-ए-आसूदगी के पैबंद लगी,

अजीयत की लम्बी चादरें...

कहीं तो जाके ख़तम हों,

ये सोज़-ओ-खलिश की कतारें

अधूरे से पड़े ख्वाब

और न ही चाहतें हैं,

मलबूस-ए-गरीब तो

खामोश ग़मों की आहटें हैं

खुशनुमे कल की उम्मीद है बस...

जीते रहने की और वज़ह नहीं

इक कमरे का है ये मकाँ......



( मुन्तज़िरी= इंतजारी; गोशों= कोनों; इमकान-ए-आसूदगी= ख़ुशी की संभावनाएं; अजीयत= तकलीफ; सोज़-ओ-खलिश= दुःख और उलझन; मलबूस-ए-गरीब= गरीब व्यक्ति का लिबास)


मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

कौन हूँ मैं- II

मैं इक, दो-शख्स हूँ...
खुद में उलझा हुआ...
खुद ही का इक अक्स हूँ...

हँसता हूँ सोचकर की कैसी है दुनिया...,
कभी रो पड़ता हूँ क्यूँ ऐसी है दुनिया...,

लोगों की इस भीड़ में भी...
बेलम्स बयाबां सा जो गुजरे...
वो इक लम्हा... इक वक़्त हूँ...
मैं इक दो-शख्स हूँ..

बुधवार, 21 जनवरी 2009

अंतर

आज मैंने देखा...
मंडराते हुए
इधर उधर घूमते हुए
कौवों के झुंड को..
और खाते हुए नरमुंड को...

आज मैंने पा लिया,
मानवों और कौवों में
अंतर पता लगा लिया...

वे देते हैं श्रद्धांजलि मंडराकर,
तब खाते हैं..

पर ये जो मानव हैं..
मंडराकर, खाकर,
तब श्रद्धांजलि दे पाते हैं...

कौन हूँ मैं...?

कौन हूँ मैं...
हाँ.. कौन हूँ मैं...
इसी का तो खोज रहा जवाब,
की कौन हूँ मैं...

क्या मैं वो हूँ,
जिसे उसकी माँ दूर भेजते हुए
अपने आंसू पोछती है...,
और फिर...
कब आएगा मेरा लाल
यही सोचकर उसकी राह तकती है...

क्या मैं वो हूँ,
जिसे उसका बाप कहता है
तुम्हे एक दिन बहुत आगे बढ़ना है...,
और मेरा नाम...
इस दुनिया में रोशन करना है...

हाँ, वही तो हूँ शायद मैं...
हाँ.. हाँ, वही तो हूँ मैं...
पर क्या फायदा ये जानकर
जब चलना है दूसरों की मानकर,
करना तो था कुछ और...
लेकिन सोते रहे चादर तानकर...

लेकिन है भरोसा एक दिन
अपना जहाँ बना बनाऊंगा मैं,
और तभी शायद इसका जवाब
ढूंढ पाऊंगा मैं... की
कौन हूँ मैं...?
कौन हूँ मैं...?

***

(मेरी पहली कविता, जो ०७-अप्रैल-२००४ को रात ९:२० बजे रमन छात्रावास, लखनऊ में लिखी थी.)