शनिवार, 12 जून 2010

दो बत्तियां


















दरवाज़े की झिर्री से दो बत्तियां दिखती हैं,

कुछ टिमटिमाती भर हैं;

कुछ आँखों को चुभती हैं,

तीन मर्तबा बंद कर चुका दरवाज़ा भी

ये दरीचा भी कमबख्त ऊँचाई पे है,

टकटकी लगा के देख रहा कब से,

शायद मेरी नज़रें चुभ जाएँ उसको,

आजकल शर्म किसे आती है...

इधर उधर देखो तो भी ;

इक अक्स सा दिखता है उसका….

बोझिल सी हो चली हैं पलकें

कमरें की लाईटें भी बुझा दीं अब तो,

पर वो दो बत्तियां अब भी जलती हैं…

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