सांझ की पंचायत में..
शफ़क की चादर में लिपटा
और जमुहाई लेता सूरज,
गुस्से से लाल-पीला होता हुआ
दे रहा था उलाहना...
'मुई शब..!
बिन बताये ही भाग जाती है..
सहर भी, एकदम दबे पांव
सिरहाने आकर बैठ जाती है..
और ये लोग-बाग़, इतनी सुबह-सुबह
चुल्लुओं में आब-ए-खुशामद भर-भर कर
उसके चेहरे पे छोंपे क्यूँ मारते हैं?'
उफक ने डांट लगाई-
'ज्यादा चिल्ला मत..
तेरे डूबने का वक़्त आ गया..'
माँ समझाती थी-
"उगते सूरज को तो सभी अर्घ्य देते है.."
- डूबते को क्यूँ नहीं देता अर्घ्य कोई.....
(शफ़क= सूर्यास्त की लालिमा, सहर= सुबह/प्रातःकाल, आब-ए-खुशामद= चापलूसी के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला जल, उफ़क= क्षितिज.)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें