शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

ग़ज़ल

मैं बन्द आँखों से दुनिया भर के मन्ज़र देख लेता हूँ -
सुखन वाला हूँ, हर इक शय  को  बेहतर देख लेता हूँ -

गुजरता  हूँ  उधर  से  जब,  पलटकर  देख  लेता  हूँ -
कोई  रहता  नहीं  वाँ  फिर  भी  अक्सर देख लेता हूँ -

किसी  की  ख़ुश्क़  पथरायी  सी  आँखें  याद  आती हैं
कभी  टुकड़ा  ज़मीं  का  मैं  जो  बंज़र  देख  लेता  हूँ -

वो  'मैं'  जो  बरसों  पहले खो गया, उसकी तलाशी में
यूँ   ही  गाहे - बगाहे   अपने   अन्दर   देख  लेता  हूँ -

किये  बैठा  हूँ  अपने  हौसले  को  कबसे  मैं  तलवार
उसे  लाने   दो  अपने  लाव - लश्कर,  देख  लेता  हूँ -

मेरा  दुश्मन  भी  मुझपे  वार  करके  ख़ुद  तड़पता  है
मैं  हर इक  वार  पे उसके, जो हँसकर  देख  लेता हूँ -

ग़ज़ल

नींद के दरिया में ख़्वाबों की आती-जाती तुग्यानी -
मगर  हक़ीक़त  के सहरा  में  दूर  तलक है वीरानी -

मुश्किल  को  आसाँ करने वाले तो  मिलने आसाँ हैं
आओ  उसको  ढूँढ़ें  जो  मुश्किल  में  ढूँढ़े  आसानी -

चाहें ग़म बेचो या आँसू, या फिर बेचो ख्वाब, ज़मीर
हर शय की उतनी है कीमत, जितनी उसमें हैरानी -

उठती गिरती लहरों को तब से बोसे की लगी तलब
एक  दफ़ा जो चाँद  ने चूमी थी  दरिया की पेशानी -

तुम ज़रूर हारोगे !

गालियाँ देना ज़रूरी है, बहुत ज़रूरी 
और हमेशा लड़ते रहना भी..
पहले धर्म के नाम पर 
फिर जाति के नाम पर 
प्रदेश के नाम पर
जिले के नाम पर 
गाँव, शहर और मोहल्ले के नाम पर.. 
फिर घर में भाई से
माँ से, बाप से, बीवी से
दोस्तों से, दुश्मनों से

ये सभी लड़ाईयाँ लड़ने और जीतने वालों !
मैं विश्वास से कह सकता हूँ तुमसे -
एक दिन आईने में जब ख़ुद को देखोगे,
तुम ज़रूर हारोगे !
तुम ज़रूर हारोगे !