बुधवार, 10 नवंबर 2010

मुहूर्त ट्रेडिंग (लघुकथा)

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जेल की कालिख लगी दीवार से टेक लगाकर बैठा 'हरिया' शून्य में निहारते हुए अपनी किस्मत को कोस रहा था. छुटकी को भी, लाई और बताशे मिलने की उम्मीद रही होगी. बेचारा छुटका तो कई दिनों से पटाखे खरीदने की जिद कर रहा था. पर ४० रुपये में आखिर क्या-क्या लेकर घर जाता..? उतने में तो पूरे कुनबे को एक वक़्त की रोटी भी नसीब  नहीं होती. ऐसे में, अगर उसने 'चालीस' को 'चार सौ' बनाने के लिए 'जुआ' खेल भी लिया तो क्या बुरा कर दिया..?

-"कल तो यार मज़ा ही आ गया. कल दिवाली पर, शाम को केवल एक घंटे के भीतर ही शेयरों की 'मुहूर्त ट्रेडिंग' करके मैंने ४००० रुपये कमा लिए."
-"चलो... कम से कम इस बार के पटाखों का खर्चा तो वसूल हुआ.."
-"हा.. हा.. हा.. हा.."

और उन दोनों वर्दी वालों को हँसते देखकर हरिया सोच रहा था--
" काश दिवाली के दिन जुआ खेलने की बजाय मैंने भी 'मुहूर्त ट्रेडिंग' की होती....."

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